Rajani katare

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बंधन जन्मों का भाग -- 7

       


 "बंधन जन्मों का" भाग- 7

पिछला भाग:--

आप लोग हिम्मत रखिए हम लोग पूरी कोशिश 
कर रहें हैं... जैसे ही कुछ पता चलता है तो हम आपको खबर करेंगे.....
अब आगे:--
पुलिस वालों के जाते ही विमला खूब सुबक पड़ी,
बहुत रोना आया...कुछ खबर दबर नहीं कहाँ गये..
ससुर जी-न बेटा ऐसे नहीं रोते... परेशान न होओ,
मिल जाएगा!! पुलिस ढूंढ रही है न, हो सकता है कहीं ओर चला गया हो.....

खैर चलो खाना परोस कर लाओ!! बहुत तेज भूख
लग रही है...साथ में अपनी थाली भी परोस कर
लाना... जैसे तैसे खाना हुआ, रात गहरा गयी पर
कोई खबर नहीं आई....दो दिन,  चार दिन, हफ्ता,
महिनों पे महिनें हो गये कुछ भी पता नहीं चला...
रो रो कर विमला के आँसू भी सूख गये....

एक दिन ससुर जी ने विमला को बैठाकर बात करी,
बेटा साल भर हो गया बिरजू का कुछ पता नहीं चला... मैंने सोचा है अब तुम अपनी पढ़ाई फिर से
शुरु करो... मैं कितने दिन जिऊंगा तुम्हारे सामने पूरा जीवन पड़ा है, बच्चे भी अभी छोटे हैं....
विमला- जी!! के सिवा कुछ न बोल पायी....
क्या करे!! उसे खुद ही कुछ समझ नहीं आ रहा....
मैं कल तुम्हारे लिए पुस्तकें और कापी पेन सब ला दूंगा, तुम घर में ही पढ़ाई करो प्राईवेट तौर पर
आठवीं की परीक्षा देना.....

दूसरे दिन बाबू जी ने पढ़ाई लिखाई की सब सामग्री लाकर दे दी... विमला घर का काम काज करके,
जब भी समय मिलता तो पढ़ने बैठ जाती....
धीरे धीरे समय निकलता चला गया....
बहुत ही संघर्ष पूर्ण परिस्थितियों में आठवीं की परीक्षा पास कर ली....

ससुर जी सरकारी महकमे में थे सो पेंशन मिल रही
थी सो घर ख़र्च चल रहा था... उन्हें दिन रात यही
चिंता सताती कि मेरे बाद क्या होगा इसका...?
क्या करेगी यह...? है ईश्वर मुझे बस इतनी जिंदगी जरुर देना ये बच्ची "अपने पैरों पर खड़ी हो जाए".. बस मेरी यही"दुआ कबूल कर लेना"....

कितनी भी परेशानियां आएं जीवन में पर समय
को कौन पकड़ पाया है... कहते हैं न "आंए जीवन में कितनी भी मुश्किलें संघर्ष में कभी हार न मानों, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती" विमला की कठिन तपस्या रंग लाई...उसका दसवीं का परिणाम आ गया था वो अव्वल नम्बरों से पास हो गयी....अब नोकरी का संघर्ष शुरु हुआ....
सारा काम निपटा कर बच्चों को स्कूल भेजकर
खुद भी निकल जाती... स्कूलों के चक्कर लगाती,
नोकरी की गुहार लगाती.... बाबू जी अलग सबसे कहते रहते......

बाबू जी रोज सुबह-शाम टहलने जाते थे फिर कुछ
देर पार्क में बैठ कर आ जाते.... आज सुबह-सुबह
टहलने गए तो विचारों में इतने खो गये.... ध्यान ही
न रहा कितने चक्कर लगा लिए... थक हार कर बैठ
गये पार्क में... वहीं बैंच पर पाँव पसार लिए सो कब
नींद का झौंका आ गया... किसी ने उनके हाथ पर हाथ रखा!! क्या हुआ दोस्त...? यहाँ क्यों सो रहे
हो...? वो भी सुबह के समय!! सब ठीक तो है न...

अजनबी!! मुझे दोस्त कह कर बुलाना ये कुछ
चमत्कार से कम न था... मैं झट उठ बैठा...
थकान के कारण पता ही नहीं चला कब नींद लग
गयी....आपको पहचाना नहीं मैंने.... पहचान क्या
इंसान हूँ फिर भी मुझे रमाकांत कहते हैं दोस्त...
अब तो बता दो अपना नाम और अपनी परेशानी का सबब... मैं सुखमन गाँव में सब पंडित जी
कह कर बुलाते थे.... अब दोस्त बना ही लिया है
तो बैठो बताता हूँ.... तो सुनो दोस्त मेरी इकलौती बहू के साथ ईश्वर ने कैसा मजाक करा है, उसकी
जिंदगी में सुख नाम की कोई चीज ही नहीं है...

किसी को क्या अपनी व्यथा सुनाऊँ, अंदर ही अंदर घुटता रहता हूँ... उसका दुख देखा नहीं जाता...
अपनी उम्र को देखते हुए सोचता हूँ और कोशिश भी जारी है बच्ची की नोकरी लग जाए तो मैं निश्चिंत हो जाऊँ......
क्रमशः--

   कहानीकार- रजनी कटारे
         जबलपुर ( म.प्र.)

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